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Who says Akbar was great / कौन कहता है अकबर महान था (Paper Back)

Rs. 250.00

लेखक ‘पुरुषोत्तम नागेश ओक’ का मानना हैं कि इस प्रकार की धारण रखते हुए प्रचार करना कि ‘अकबर’ एक ‘उदार’ और ‘महान’ शासक था । संभवतः अपने देश के साथ ‘देशद्रोह’ करने के समान है । ‘अकबर’ पर लिखी गई इस पुस्तक ‘कौन कहता है अकबर महान था’ का उद्देश्य हमारे साथ हुए दुर्व्यवहार, अन्याय, अत्याचार और हमारें साथ मुस्लिम आक्रान्ताओं द्वारा किए गए ‘धोखे’ का भंडाफोड़ करना है । लेखक द्वारा शोधरचित ‘कौन कहता है अकबर महान था’ पुस्तक में प्रस्तुत ऐतिहासिक प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि  ‘अकबर’ जैसे ‘निकृष्ट’, ‘अहंकारी’, ‘आदर्शहीन शासक’, को धर्मनिष्ठ नागरिकों की श्रेणी में भी सम्मिलित नहीं किया जा सकता ।

इसमें कोई सन्देह नहीं है कि अकबर अपने आपमें ही एक कानून था । उचित प्रकार से मुल्यांकन करे तो विश्व के इतिहास में वह एक सर्वाधिक निरंकुश, क्रूर, धूर्त, धर्म से अँधा और पाखण्डी शासक साबित होता है । लेखक द्वारा विगत 400 वर्षों के लम्बे ऐतिहासिक अन्तराल के पश्चात अकबर को शासनकाल की घटनाओं का विवेचन करते हुए ऐसा कोई कारण दिखलाई नहीं देता जिससे अकबर के प्रति हमारा कोई व्यक्तिगत रूप से या स्पष्ट रूप से दुश्मनी हो या किसी प्रकार की दुर्भावना हमारे मन में हो ।

दीर्घकालीन इतिहास का बारीकी से मुल्यांकन करने पर स्पष्ट होता है कि अन्य बादशाहों की भाँती अकबर भी पूर्णत: एक विदेशी बादशाह था । किन्तु लेखक द्वारा वर्तमान इतिहास की पुस्तकों एवं प्रमाणों का समुचित रूप से अध्ययन एवं विश्लेषण करने के पश्चात यह निष्कर्ष निकलता है कि उसे दैवी गुण-सम्पन्न मानते हुए, इतिहास में उसे सर्वोच्च स्थान प्रदान करना तथा पूज्य कहना एवं उस पर मानवता की यश-कौमुदी विकीर्ण करना, तर्क-ज्ञान, इतिहास, शोध तथा सत्य का अपमान करना है । जिसका मूल कारण सभी इतिहासकारों द्वारा अबुल फजल द्वारा लिखित ‘अकबरनामा’ में उल्लिखत झूठ प्रशस्तियुक्त तथा चाटुकारितापूर्ण तथ्यों पर ही आश्रित रहना तथा उन्हीं की भ्रान्त व्याख्या करते रहना है । जबकि हमारे इतिहासकारों ने सत्य की खोज करने का प्रयत्न ही नहीं किया ।

प्रस्तुत ग्रन्थ का उद्देश्य यह है कि अकबर तथा उसके शासनकाल के सम्बन्ध में स्वतन्त्र चिंतन किया जाए । इसकी यह भी उपलब्धि है कि अकबर के शासनकाल सम्बन्धी जो असंगत तथ्य वर्तमान पाठ्य-पुस्तकों में दिखलाई देते हैं, उनमें एकसूत्रता स्थापित करते हुए विवेकशील सम्बद्धता प्रस्तुत की जाए । लेखक का मानना है कि ‘सत्य’ का परिक्षण इस बात आधारित होता है कि वह परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले समसामयिक साक्ष्यों में सामंजस्य स्थापित करते हुए उसे परिपुष्ट एकरूपता प्रदान कर सके ।

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